देश में चल रहे अग्निवीर योजना के विरोध में हिंसक प्रदर्शन पर राजनीति भी शुरू हो गई है। इस विरोध की आड़ में राजनीतिक पार्टियां भी अपना उल्लू सीधा करना चाह रही हैं। इस मामले में काँग्रेस पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट के ज़रिए केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि, “जिन्होंने आज़ादी के 52 सालों तक तिरंगा नहीं फहराया, उनसे जवानों के सम्मान की उम्मीद नहीं की जा सकती। युवा, सेना में भर्ती होने का जज़्बा, चौकीदार बन कर भाजपा कार्यालयों की रक्षा करने के लिए नहीं, देश की रक्षा के लिए रखते हैं। प्रधानमंत्री की चुप्पी इस बेइज़्ज़ती पर मोहर है।”
चलिए आपको बताते हैं कि राहुल गांधी जिस आजादी के 52 साल तक तिरंगा नहीं फहराने के बात कर रहे हैं उसकी सच्चाई क्या है। दरअसल, 1947 में आजादी के बाद से और 2002 से पहले तक देश के आम नागरिकों को राष्ट्रीय पर्व के अलावा किसी अन्य दिन राष्ट्रीय ध्वज फहराने की इजाजत नहीं थी। केवल सरकारी आवास पर ही ध्वजारोहण का अधिकार था। सरकारी कार्यालय पर ही झंडा लगा सकते थें। इस बीच किसकी सरकार थी आप सभी जानते हैं।
अब आपको बताते हैं कि कैसे देश के सभी नागरिकों को तिरंगा फहराने का अधिकार मिला।
उद्योगपति नवीन जिंदल वर्ष 1992 में अमेरिका में पढ़ाई कर भारत लौटे। वर्ष 1992 में उन्होंने अपने कारखाने में तिरंगा फहराना शुरू किया, तो उन्हें जिला प्रशासन ने दण्डित करने की चेतावनी दी। जिस पर निजी तौर पर राष्ट्रध्वज फहराने के अधिकार को लेकर वे दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट गए। सात साल चली कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “देश के प्रत्येक नागरिक को आदर, प्रतिष्ठा एवं सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहराने का अधिकार है।”
इस प्रकार यह प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार बना। इस फैसले के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फ्लैग कोड में संशोधन किया था। इसके पूर्व स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अलावे किसी भी दिन भारत के नागरिकों को अपना राष्ट्रध्वज फहराने का अधिकार नहीं था। खास कर अपने घरों या कार्यालयों में। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 26 जनवरी 2002 से भारत सरकार ने फ्लैग कोड में संशोधन कर भारत के सभी नागरिकों को किसी भी दिन राष्ट्र ध्वज को फहराने का अधिकार दिया।
ज़रा सोचिए जिनकी सरकार में अपने ही देश के झंडे को फहराने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा वो कह रहे हैं कि जवानों के साथ दिवाली मनाने वाले पीएम से जवानों के सम्मान की उम्मीद नहीं की जा सकती है। आज जवानों के सम्मान के हितयसी वाले यही राहुल गांधी ने पाकिस्तान में हुई सर्जिकल स्ट्राइक पर पीएम मोदी से प्रूफ मांगा था।
ये तो रही वर्तमान की बात, अब चलिए आपको ले चलते हैं इतिहास में और आपको बताते हैं कि इनका और इनके परिवार का देश के सैनिकों के साथ कितना प्रेम था।
वर्ष 1947 में सेना मुख्यालय में सैन्य सचिव मेजर जनरल रुद्र ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब जनरल लॉकहार्ट कमांडर-इन-चीफ थे, तब उन्होंने सितंबर 1947 में आने वाली चुनौतियों और प्रतिरक्षा के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समक्ष रक्षा योजनाओं का एक शोध पत्र प्रस्तुत जिसमें सैन्य नीतियों का जिक्र किया था। इस पर नेहरू ने चिल्लाते हुए कहा कि, “बकवास! सब बकवास! हमें किसी रक्षा योजना की आवश्यकता नहीं है। हमारी नीति अहिंसा की है। हम किसी को सैन्य खतरा नहीं मानते हैं। सेना को खदेड़ो। हमारी सुरक्षा खतरों को पूरा करने के लिए पुलिस ही काफी है।”
इस बात की पुष्टि मेजर जेनरल कुलदीप सिंह बाजवा ने अपनी पुस्तक जम्मू-कश्मीर वॉर 1947-1948 में की है। किसी देश के प्रधानमंत्री की ऐसी मानसिकता से सेना का मनोबल गिरना लाजिमी था। जिसका परिणाम 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में देखने को मिला। इस युद्ध में हारने का कारण के मनोबल गिरना ही नहीं बल्कि भारतीय सेना के पास मॉडर्न हथियारों की कमी भी थी।
आज उसी नेहरू खानदान के चिराग राहुल गांधी सेना के जवानों के हक में बयान दे रहे हैं। जिन्होंने कुछ दिन पहले एक ईवेंट के दौरान खुद ही स्वीकार किया था कि उन्हे एनसीसी जैसी चीजों के बारे में समझ नहीं है। जिन्हे एनसीसी की समझ नहीं है आज वो देश के जवानों के लिए खड़े हो रहे हैं।
जवानों से सर्जिकल स्ट्राइक का प्रूफ मांगने वाले राहुल गांधी आज उनके हक के लिए खड़े हैं। ऐसे में राहुल गांधी का दोमुहा चेहरा सबके सामने आ चुका है। तो अब सवाल ये उठता है जब उन्हे देश सुरक्षा नीति और भारतीय सेना के बारे में जानकारी और समझ नहीं है तो वह आज कैसे जवानों के लिए सही और गलत का फैसला कर रहे हैं।
बता दें कि भारत अपने रक्षा बजट का करीब पचास फीसद हिस्सा सैनिकों के वेतन और पेंशन पर खर्च करता है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देशों का खर्च इससे कहीं कम है। रक्षा क्षेत्र में आवंटित होने वाले बजट का एक बड़ा हिस्सा पूर्व सैनिकों की पेंशन पर खर्च होता है। उदाहरण के लिए इस साल 5.25 लाख करोड़ के कुल रक्षा बजट में 1.19 लाख करोड़ रुपये पूर्व सैनिकों की पेंशन पर आवंटित हुए हैं। पूर्व में यह राशि 1.33 लाख करोड़ तक पहुंच चुकी थी। जबकि अमेरिका और चीन अपने सैनिकों की पेंशन से ज्यादा नए लोगों के प्रशिक्षण पर खर्च करते हैं।