किसी भी दिन को जब हम मानते है तो उसके पीछे कोई अहम कारण होता है। उसमें से एक अहम वजह होती है उस दिन के महत्व को बढ़ाना और उनके प्रति समाज में जागरूकता लाना। वैसे ही हर साल 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिन’ पूरी दुनिया में मनाया जाता है । तो आज ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के इस खास अवसर पर हम आपको विश्व आदिवासी दिन से जुडी जानकारी देंगे। तो चलिए जानते है आखिर क्यों मनाया जाता है विश्व आदिवासी दिवस और इसके पीछे क्या है इतिहास।
आपको बता दे कि इस दिवस को मनाने का एक खास उद्देश्य है। ये दिन पूरी दुनिया में रहने वाले आदिवासी लोगों के लिए मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य आदिवासीयो के अधिकारों को संजोये के रखना होता है। जिसमे जल, जंगल, जमीन शामिल है। इन तीन चीजों को बढ़ावा देना साथ ही उनकी सामाजिक, आर्थिक और न्यायायिक सुरक्षा देने के लिए आदिवासी लोगों का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है।
आपको बता दे की दिसंबर 1994 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा ‘विश्व आदिवासी दिवस’ की घोषणा पहली बार की गई थी । तब से यह दिन हर साल 9 अगस्त को मनाने की शुरुआत की गयी है। आज भी संपूर्ण विश्व में यह ‘विश्व आदिवासी दिवस’ बड़ेहि धूमधाम से मनाया जाता है। इसका पहला दशक 1995-2004 था। 2004 में असेंबली ने इस दिन को मनाने की एक थीम रखी थी। वह थीम ‘ए डिसैड फॉर एक्शन एंड डिग्निटी’ थी। इस दिन को विशेष रूप से मनाने के लिए विभिन्न देश के आदिवासी आबादी के लोग एकत्रित आते है। विश्व के समस्त आदिवासियों के अधिकार और संस्कृति, विविधता का सम्मान करना यह इसके पीछे का उद्देश्य है।
इस साल विश्व आदिवासी दिवस का थीम है ‘ Leaving No One Behind: Indigenous Peoples And The Call For a New Social Contract’.
आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है जिसका अर्थ ‘मूल निवासी’ होता है। भारत में लगभग 700 आदिवासी समूह व उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन आदिवासी जातियां हैं। भारत की जनसंख्या का 8.6% यानी 10 करोड़ जितना एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है ।
पुराने ग्रंथों में आदिवासियों को ‘अत्विका’ नाम दिया गया एवं महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन यानी पहाड़ पर रहने वाले लोग से संबोधित किया था। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ पद का उपयोग किया गया है।
आदिवासी समाज में कई सारे परंपरा है। उन में से देशज ज्ञान परंपरा काफी समृद्ध है। और इसी परंपरा की वजह से आदिवासी समाज कई बार शोषण का शिकार भी बनती है। कई बार तो ऐसा हुआ कि बड़े औद्योगिक घराने के लोग आदिवासियों के इसी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उनके साथ छल करते हैं। इसके काफी सारे उदाहरण संबंधित क्षेत्रों में मिल जाते हैं।
और वही कई सारे शोध में यह भी बताया गया है की इस कारण से आदिवासी जातियां अपने मूल व्यवसाय को छोड़ अन्य कार्यों में लग जाती हैं, जिस कारण से आदिवासियां धीरे-धीरे अपने वास्तविक एवं एकाधिकार ज्ञान को भूलने लगती हैं।
प्रो. खुदीराम टोप्पो ने अपने एक लेख में बताया है की देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग आदिवासी प्रदेश है। जहां राष्ट्रीय संसाधन का 70 प्रतिशत खनिज, वन, वन्य प्राणी, जल संसाधन तथा सस्ता मानव संसाधन विद्यमान है, फिर भी यहां के लोग विस्थापित हो रहे हैं जिसके कारण वे अपने मूल एवं समृद्ध देशज ज्ञान से दूर हो जा रहे हैं।
वही दूसरी तरफ आदिवासियों के पास डिजास्टर, डिफेंस और डेवलपमेंट का भी अद्भुत ज्ञान है । ऐतिहासिक पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि कैसे मुगल या अंग्रेज़ पूरे भारत पर अपना कब्ज़ा कर लेते हैं लेकिन जब वे आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश करने की सोचते हैं तो उन्हें हार का सामना करना पड़ता है। और इसी प्रकार अंडमान के जरवा आदिवासी सुनामी जैसी भयानक प्राकृतिक आपदा में भी खुद को बचा लेने एवं इसका अंदेशा लगा लेने कि कोई भयानक प्रकृतिक आपदा आने वाली है ने इस क्षेत्र के लोगों को यह विश्वास दिलाया कि आदिवासियों के पास डिजास्टर की अद्भुत समझ है।
इसी प्रकार आदिवासी समाज में मदद की भी परंपरा है जिसे ‘हलमा’ कहते हैं।इसके तहत जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने संपूर्ण प्रयासों के बाद भी खुद पर आए संकट से उबरने में असमर्थ होता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयत्नों से उसे उस मुश्किल से उसे बाहर निकालते हैं। यह एक ऐसी परंपरा है जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता की जाती है। यह परंपरा या ज्ञान चर्चा में तब आई जब 2018 में देश में भयानक जल संकट को देखते हुए आदिवासियों ने हलमा का आह्वान धरती मां के लिए किया था। इसका नतीजा यह रहा कि कुछ ही दिनों में देश के कई स्थानों पर निशुल्क हजारों जल संरक्षण केंद्र तैयार किये गए थे।
आदिवासियों ने अपने ज्ञान का उपयोग सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए किया है। आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को याद करना ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ को पूर्ण करता है। आदिवासियों का राष्ट्र के प्रति वह अमृत भाव ही था जिसने सिद्दू और कान्हू, तिलका और मांझी, बिरसा मुंडा इत्यादि वीर योद्धाओं को जन्म दिया।
आज जब देश आजादी का अमृत महोत्सव माना रहा हैं तो आजादी के इन नायकों को याद भी कर रहा है। ऐसे में यह भी जरूरी है कि आदिवासियों के राष्ट्र प्रेम और इस प्रेम में दिए उनके अनोखे बलिदान को भी याद किया जाना चाहिए। आदिवासी समाज राष्ट्र को सिर्फ स्वतंत्र ही नहीं बल्कि जागृत करने का काम भी अपने लोक संचार माध्यम के जरिये करते रहे हैं। बंगला लोक नाट्य ‘जात्रा’ का उपयोग स्वतन्त्रता संघर्ष में खूब किया गया था।
लोकगान के परंपरागत रूप ‘पाला’ का उपयोग भी जनजागरूकता एवं स्वतन्त्रता आंदोलन में किया गया था। इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मिलते हैं जहां लोक संचार माध्यम के जरिये आदिवासियों ने आजादी की अलख जगाए रखी।
देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि वाकई हमें आत्मनिर्भर बनना है तो देश में वैज्ञानिक शोध के अवसरों को न केवल आसान करने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामवासी या सामान्य जन जो आविष्कार कर रहे हैं, उन्हें भी वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग में लाने की जरूरत है।